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CBSE Notes for class 12 th


Chapter 10. उपनिवेशवाद और देहात History Part-3 class 12 in hindi Medium CBSE Notes | आरंभिक औपनिवेशिक शासन. The most popular cbse notes prepared by latest cbse and ncert syllabus in both medium.;

Chapter 10. उपनिवेशवाद और देहात : आरंभिक औपनिवेशिक शासन History Part-3 class 12th:Hindi Medium NCERT Book Solutions

NCERT Books Subjects for class 12th Hindi Medium

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Chapter 10. उपनिवेशवाद और देहात

 

आरंभिक औपनिवेशिक शासन

भारत में प्रथम औपनिवेशिक शासन : 

औपनिवेशिक शासन सर्वप्रथम बंगाल में स्थापित किया गया था। यही वह प्रांत था जहाँ पर सबसे पहले ग्रामीण समाज को पुनर्व्यवस्थित करने और भूमि संबंधी अधिकारों की नयी व्यवस्था तथा एक नयी राजस्व प्रणाली स्थापित करने के प्रयत्न किए गए थे।

बर्दवान में नीलामी की घटना : सन 1797 में पश्चिम बंगाल के बर्दवान में राजा की संपति की सार्वजनिक नीलामी की घटना हुई | सन् 1793 में इस्तमरारी बंदोबस्त लागू हो गया था। ईस्ट इंडिया कंपनी ने राजस्व की राशि निश्चित कर दी थी जो प्रत्येक जमींदार को अदा करनी होती थी। जो जमींदार अपनी निश्चित राशि नहीं चुका पाते थे उनसे राजस्व वसूल करने के लिए उनकी संपदाएँ नीलाम कर दी जाती थीं। चूँकि बर्दवान के राजा पर राजस्व की बड़ी भारी रकम बकाया थी, इसलिए उसकी संपदाएँ नीलाम की गई | इस घटना में मजेदार बात यह है कि कलेक्टर को पता चला कि नीलामी में आए अनेक ख़रीददार, राजा के अपने ही नौकर या एजेंट थे और उन्होंने राजा की ओर से ही जामीनों को ख़रीदा था। नीलामी में 95 प्रतिशत से अधिक बिक्री फर्जी थी।

इस्तमरारी बंदोबस्त : सन् 1793 में औपनिवेशिक सरकार इस्तमरारी बंदोबस्त लागू की | ईस्ट इंडिया कंपनी ने राजस्व की राशि निश्चित कर दी थी जो प्रत्येक जमींदार को अदा करनी होती थी। जो जमींदार अपनी निश्चित राशि नहीं चुका पाते थे उनसे राजस्व वसूल करने के लिए उनकी संपदाएँ नीलाम कर दी जाती थीं। इस्तमरारी बंदोबस्त लागू किए जाने के बाद 75 प्रतिशत से अधिक जमींदारियाँ हस्तांतरित कर दी गई थीं | 

बंगाल में राजस्व की राशि निश्चित करने के पीछे उदेश्य : औपनिवेशिक सरकार द्वारा बंगाल में राजस्व की दरों को स्थायी रूप से तय कर दिए जाने के पीछे उदेश्य/कारण निम्नलिखित थे | 

(i) 1770 के दशक तक आते-आते, बंगाल की ग्रामीण अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजरने लगी
थी क्योंकि बार-बार अकाल पड़ रहे थे और खेती की पैदावार घटती जा रही थी।

(ii) अधिकारी लोग ऐसा सोचते थे कि खेती, व्यापार और राज्य के राजस्व संसाधन सब तभी विकसित किए जा सकेंगे जब कृषि में निवेश को प्रोत्साहित किया जाय और ऐसा तभी संभव हो सकेगा जब तक संपति के अधिकार न मिल जाये |

(iii) यदि राज्य (सरकार) की राजस्व माँग स्थायी रूप से निर्धरित कर दी गई तो कंपनी राजस्व की नियमित प्राप्ति की आशा कर सकेगी और उद्यमकर्ता भी अपने पूँजी-निवेश से एक निश्चित लाभ कमाने की उम्मीद रख सकेंगे, क्योंकि राज्य अपने दावे में वृद्धि करके लाभ की राशि नहीं छीन सकेगा |

(iv) अधिकारीयों को यह आशा थी कि इस प्रक्रिया से छोटे और धनी भूस्वामियों का एक ऐसा वर्ग उत्पन्न हो जाएगा जिसके पास कृषि में सुधार करने के लिए पूँजी और उद्यम दोनों होंगे। उन्हें यह भी उम्मीद थी कि ब्रिटिश शासन से पालन-पोषण और प्रोत्साहन पाकर, यह वर्ग कंपनी के प्रति वफादार बना रहेगा। 

इस्तमरारी बंदोबस्त के बाद जमींदारों की स्थिति : 

बंगाल में इस्तमरारी बंदोबस्त लागु करने के बाद उनकी स्थित और बुरी हो गयी |

(i) यह कानून बंगाल के राजाओं और तल्लुक्दारों के साथ लागु किया गया था लेकिन उसके बाद उन्हें जमींदारों के रूप में वर्गीकृत किया गया और उन्हें सदा के लिए एक निर्धरित राजस्व माँग को अदा करना था। 

(ii) इस परिभाषा के अनुसार, जमींदार गाँव में भू-स्वामी नहीं था, बल्कि वह राज्य का राजस्व समाहर्ता यानी (संग्राहक) मात्र था।

(iii) जमींदार से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह कंपनी को नियमित रूप से राजस्व राशि अदा करेगा और यदि वह ऐसा नहीं करेगा वो उसकी संपदा नीलाम की जा सकेगी।

राजस्व राशि के भुगतान में जमींदार द्वारा चूक का कारण : 

कंपनी के अधिकारीयों का यह सोचना था कि राजस्व माँग निर्धरित किए जाने से जमींदारों में सुरक्षा का भाव उत्पन्न होगा, और वे अपने निवेश पर प्रतिफल प्राप्ति की आशा से प्रेरित होकर अपनी संपदाओं में सुधार करने के लिए प्रोत्साहित होंगे। किंतु हुआ ठीक इसके उल्टा इस्तमरारी बंदोबस्त के बाद, कुछ प्रारंभिक दशकों में जमींदार अपनी राजस्व माँग को अदा करने में बराबर कोताही करते रहे, जिसके परिणामस्वरूप राजस्व की बकाया रकमें बढ़ती गईं। इस असफलता के कई कारण थे |

(i) प्रारंभिक माँगें बहुत ऊँची थी, क्योंकि ऐसा महसूस किया गया था कि आगे चलकर कीमतों में बढ़ोतरी होने और खेती का विस्तार होने से आय में वृद्धि हो जाने पर भी कंपनी का दावा कभी नहीं कर सकेगी । इस प्रत्याशित हानि को कम-से-कम स्तर पर रखने के लिए, कंपनी ने माँग को ऊँचे स्तर पर रखा, और इसके लिए दलील दी कि ज्यों-ज्यों कृषि के उत्पादन में वृद्धि होती जाएगी और कीमतें बढ़ती जाएँगी, जमींदारों का बोझ शनैः शनैः कम होता जाएगा।

(ii) यह ऊँची माँग 1790 के दशक में लागू की गई थी जब कृषि की उपज की कीमतें नीची थीं, जिससे रैयत (किसानों) के लिए, जमींदार को उनकी देय राशियाँ चुकाना मुश्किल था। जब जमींदार स्वयं किसानों से राजस्व इकट्ठा नहीं कर सकता था तो वह आगे कंपनी को अपनी निर्धरित
राजस्व राशि कैसे अदा कर सकता था?

(iii) राजस्व असमान था, फसल अच्छी हो या ख़राब राजस्व का ठीक समय पर भुगतान जरूरी था।
वस्तुतः सूर्यास्त विधि (कानून) के अनुसार, यदि निश्चित तारीख़ को सूर्य अस्त होने तक भुगतान नहीं आता था तो जमींदारी को नीलाम किया जा सकता था।

(iv) इस्तमरारी बंदोबस्त ने प्रारंभ में जमींदार की शक्ति को रैयत से राजस्व इकट्ठा' करने और अपनी जमींदारी का प्रबंध् करने तक ही सीमित कर दिया था।

औनिवेशिक सरकार द्वारा जमींदारों पर नियंत्रण के लिए उठाए गए कदम : कंपनी जमींदारों को पूरा महत्त्व तो देती थी पर वह उन्हें नियंत्रित तथा विनियमित करना, उनकी सत्ता को अपने वश में रखना और उनकी स्वायत्तता को सीमित करना भी चाहती थी। इसके फलस्वरूप कंपनी द्वारा निम्नलिखित कदम उठाए गए | 

(i) फलस्वरूप जमींदारों की सैन्य-टुकडि़यों को भंग कर दिया गया,

(ii) सीमा शुल्क समाप्त कर दिया गया और उनकी कचहरियों को कंपनी द्वारा नियुक्त कलेक्टर की देखरेख में रख दिया गया।

(iii) जमींदारों से स्थानीय न्याय और स्थानीय पुलिस की व्यवस्था करने की शक्ति छीन ली गई।

(iv) समय के साथ-साथ, कलेक्टर का कार्यालय सत्ता के एक विकल्पी केंद्र के रूप में उभर आया और जमींदार के अधिकार को पूरी तरह सीमित एवं प्रतिबंधित कर दिया गया।

(v) एक मामले में तो यहाँ तक हुआ कि जब राजा राजस्व का भुगतान नहीं कर सका तो एक कंपनी अधिकारी को तुरंत इस स्पष्ट अनुदेश के साथ उसकी जमींदारी में भेज दिया गया कि जिले का पूरा कार्यभार अपने हाथ में ए लिया गया | 

रैयतों (किसानों) के साथ जमींदारों की समस्या : 

कभी-कभी तो खराब फसल और नीची कीमतों के कारण किसानों के लिए अपनी देय राशियों का भुगतान करना बहुत कठिन हो जाता था और कभी-कभी ऐसा भी होता था कि रैयत जान बूझकर भुगतान में देरी कर देते थे। धनवान रैयत और गाँव के मुखिया - जोतदार और मंडल - जमींदार को परेशानी में देखकर बहुत ख़ुश होते थे। क्योंकि जमींदार आसानी से उन पर अपनी ताकत का इस्तेमाल नहीं कर सकता था। जमींदार बाकीदारों पर मुक़दमा तो चला सकता था, मगर न्यायिक प्रक्रिया लंबी होती थी। 1798 में अकेले बर्दवान जिले में ही राजस्व भुगतान के बकाया से संबंधित 30,000 से अधिक वाद लंबित थे।

जोतदार जमींदारों से अधिक शक्तिशाली थे : 

 

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